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लाल रंग में रंगी मैं
अंतर भी लाल
माथा भी लाल
सपने भी हैं आज लाल
ओढ़ चुनरिया लाज की
गाल हुए हैं फिर लाल
सूरज भी है लाल आज
झपटने को है कोई ‘बाज़’
क्यूँ हो रही मैं बेहाल
क्या दिख रहा है मुझे काल?
अरमानों ने भी पंख लाल लगाये
पूरब की ओर संदेशे भिजवाए
लाल
मांग सजा कर
भिखरे केश सँवार कर
खुद को फिर समेट के
बनाव श्रृंगार कर के
साँसों को संभल कर
उम्मीदों को लगाये पर
लाली इस लाल की
क्या मैंने आज संभाल ली
सितारों जड़ित निंदिया
आँखों में सजा ली
उस रुके पल में
क्या दुनिया अपनी बसा ली
लाल स्याही से ही तो
लिखा था मौत का फरमान
आँखों में भी उतारा था
सुर्ख लाल पैगाम
कर गया था कोमल मन को
जो मेरे लहू-लुहान
रंग लाल से रंगी में
कभी रोती कभी हँसती
दीपक की उस रौशनी में
अकेली गूंजती – पुकारती
और सिसकती मैं!
~०३/११/२०१४~
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