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Friday 21 November 2014

प्रीत का रंग


प्रीत के रंग में रंगी मोहना 
रंग ना भावे और कोये  
रंग तेरे प्रेम का चढ़ा ऐसा 
मन ना भावे और कोये 
हे ! केशव नन्द गोपाला 
बँसी धुन में खो जावूं 
जहर भी अमृत बन जावे 
तुझ सी प्रीत न निभाए कोये 
प्रीत का नशा ऐसा चढ़ा सोहना 
नशा ना भाये और कोये 
झूमूँ गाऊँ में अल्हड 
प्रेम ना कोई और कर पाये 
इतनी अरज सुन ले गिरिधर 
तुझ में ही बह जाऊं 
आँख जब भी मूंदूं 
तुझ में ही समाऊँ। 

~२१/११/२०१४~ 



Wednesday 19 November 2014

काश के हम ज़िंदा होते



काश के हम ज़िंदा होते 


नींद में तो सपने होते 

सपने में ही अपने होते 

खुशियों के समुन्दर होते 


काश के हम ज़िंदा होते


कागज़ी फूलों में खुशबु होती 

बंधन की न फुफकार होती 

चन्दन से हाथ लिपटे होते 


काश के हम ज़िंदा होते 


सूखे आँगन में हरियाली होती 

उजड़े घोंसले में चिरईया होती 

मन के अँधेरे में रौशनी होती 


काश के हम ज़िंदा होते 


बिछड़े भी संग ही होते 

लाशों के ना ढ़ेर होते 

कुछ हम भी जी लेते 


काश के हम ज़िंदा होते। 



~ १९/११/२०१४~ 

Wednesday 12 November 2014

हवा और मेँ


थाम हवा का हाथ 
बह चला उसके साथ 
रुकना भी चाहा 
फिर कहीं रुक न पाया 

 मैंने पुछा 
"क्यों नहीं रुकने देती मुझे 
जहाँ चाहूँ वहीं पे 
तनिक सुस्ता तो लूँ  
मीठी नींद ले तो लूँ 

वह बोली 
"रुकना अपना काम नहीं 
 बहता चल संग यूँही 
थामाँ है जो हाथ मेरा 
तो अपना भी ले रूप मेरा 
बह चल बस बह चल.… "

में सोचूं 
"क्या बहना ही जीवन है?
रुक गया तो
घुट जायेगा दम मेरा 
क्या शुरू और क्या अंत है  
सच , बहना ही तो जीवन है। "

लो, आज फिर 
थाम हवा का हाथ 
बह चला उसके साथ 
 बहता चला बस बहता रहा। 

~ १३/११/२०१४~ 


Thursday 6 November 2014

उलझा गोला

Pic taken from net


कोने में पड़ा रिश्तों का उलझा गोला 
धुल से अटा हुआ 
ताक रहा था मुझे 
कुछ सहमते कुछ झिझकते 

कुछ सोच, मैंने उठा लिया 
पोंछ कर साफ़ करा 
ढूंढ रहा अब ओर-छोर 
शायद ,मिल ही जाये कोई किनारा 

खींच पाता गर कोई धागा 
तो बुन ही लेता जोड़-तोड़ कर 
एक मुलायम रेशमी 
स्नेहहिल सा स्वेटर  

जिसे ओढ़ 
मन पर अपने 
गद गद मुस्काता 
उसके आगोश में 

लपेट कर उसको 
निकल जाता जूझने 
बर्फीली आँधियों से 
तनिक भी न घबराता 

लेकिन अब 
बेचैन हूँ 
ढूँढ ढूँढ 
कोई भी सुलझा किनारा 

झटक हाथ से वहीँ उसे 
सिहर रहा अंतर तक 
ढक सफ़ेद चादर से 
सिसक रहा अब तलक !



~०७/११/२०१४~ 

Monday 3 November 2014

रंग 'लाल'

Picture taken from Net
लाल रंग में रंगी मैं
अंतर भी लाल
माथा भी लाल 
सपने भी हैं आज लाल
ओढ़ चुनरिया लाज की
गाल हुए हैं फिर लाल

सूरज भी है लाल आज
झपटने को है कोई ‘बाज़’
क्यूँ हो रही मैं बेहाल
क्या दिख रहा है मुझे काल?
अरमानों ने भी पंख लाल लगाये
पूरब की ओर संदेशे भिजवाए

 लाल मांग सजा कर
भिखरे केश सँवार कर
खुद को फिर समेट के
बनाव श्रृंगार कर के
साँसों को संभल कर
उम्मीदों को लगाये पर

लाली इस लाल की
क्या मैंने आज संभाल ली
सितारों जड़ित निंदिया
आँखों में सजा ली
उस रुके पल में
क्या दुनिया अपनी बसा ली  

लाल स्याही से ही तो
लिखा था मौत का फरमान
आँखों में भी उतारा था
सुर्ख लाल पैगाम
कर गया था कोमल मन को
जो मेरे लहू-लुहान

रंग लाल से रंगी में
कभी रोती कभी हँसती
दीपक की उस रौशनी में
अकेली गूंजती – पुकारती
और सिसकती मैं!

~०३/११/२०१४~