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Monday, 4 January 2016

रेत और समन्दर

२०१२ की एक शाम 

दूर तक फ़ैली है तनहाई 
समंदर में लिपटी हुई 
ओड़ चांदनी की चुनरिया 
चाँद को बाहों में समाय 
मंद मंद मुस्काती 
कुछ शर्माती कुछ लज्जाती 
तोड़ तनहाई की दीवार 
नमक सी मिली समन्दर में  
रेत के घरोंदे में 
बसाई  अपनी प्रेम की दुनिया 
निर्लज उफनती लहर 
बहा ले गई सुन्दर 
सपनो का महल.. 

लहरों के शोर में 
समाया तनहाई का स्वर 
आँखों का नमक जा मिला 
नमकीन समन्दर से 
उसे तब कुछ और नमकीन कर गया 
रेत पर बिखरे कदमो के फीके निशान 
हर लहर के साथ 
कुछ और फीके हो गए 
क्षितिज पे गहराता लाल आसमां 
तारों को समेटे जा रहा है 
चांदनी में नहाईं किनारे की रेत 
कुछ नयी चमक सजाय है। 

~ ०५/०१/२०१६~ 


©Copyright Deeप्ती

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