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Tuesday, 17 November 2015

ज्वारभाटा




उठती लहरों की खामोश चीखें
सपनो को पहना कफ़न
अरमानो को रौंदते किनारों
पर सिसकती बिखरी पड़ी हैं

 गुस्सैल हवाएं
चीत्कार करती , उजाड़ती
शोर मचाती वीरान करती
रास्तों से गुज़रा करती हैं

मौन शब्द वाक्य की माला
में अपना वजूद ढूँढ़ते
मूक साँसों में बसें
क्रंदन करते सोये पड़े हैं

अधखुली आँखों में भयावाह सपने
तड़पते, तांडव करते
सब कुछ नष्ट करते
अपनी ही धुन में बड़े चले है

~ २७/१०/२०१५~


©Copyright Deeप्ती


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