चढ़ा उस अटरिया पे यूँ ही कुछ ढूंढने एक दिन
यादों के सूखे बागों में दिखा खिला अरमानो का एक फूल
सुगंधित कर गया जो अंतर तक पड़ा था वहां वो मुस्काते
चढ़ा अटरिया पे यादों के जाले उतारने एक दिन
पीले पड़े पन्नो से टपक रहे थे कुछ अधूरे से अलफ़ाज़
कुछ धुँधले कुछ चमकते से सुना रहे थे गुज़री कहानी
चढ़ा था अटरिया पे कुछ छितरे से सपने बटोरने एक दिन
धुल से अटी कोने में पड़ी फटी पतंग की याद हो आई अधूरी दास्ताँ
जिसे आज़ाद कर लाये थे हम तीनो दोस्त पेड़ की ऊँची डाल से
चढ़ा था अटरिया पे रिसते जख्मो का मरहम ढूंढने एक दिन
यादों की उन गलियों में घूमते एक धुन्दला सा चेहरा दिखाई दिया
मंदिर की आखिरी सीडी पे खामोश बैठी उस बूढ़ी माई का सूखा आँसू बरस गया
चढ़ा था अटरिया पे यादों के बिखरे मोती समेटने एक दिन
आवारा दौड़ते इधर उधर गली के वो चार कुत्ते
चौकीदार का वो पसीने में भीगा टूटा डंडा दिखाई दिया
चढ़ा था अटरिया पे सुकून तलाशने एक दिन
वहां जीवन का जैसे असली चेहरा दिखाई दे गया
टूटी चप्पल और फटी पैंट में भी आज़ाद हँसी का खज़ाना मिल गया
उतर अटरिया से जब पाँव रखा ज़मीन पे उस दिन
यथार्थ का आइना देख माथा भनभनाया
मीठी नींद का सपना जो चकनाचूर हो गया
~ ११/०८/२०१५~
©Copyright Deeप्ती
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