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Monday 6 May 2013

राह


तप रही है मरुभूमि
अगन लगी है हर ओर
ऐ रंगरेज तू ही बता
इस का सरल हल कोई..

युद्ध है यहाँ और वहाँ भी
कमज़ोर है हर इंसान
फिर भी समझे बलवान
हर दुसरे से..

प्यासा हूँ एक बूँद पानी का
खून से रंगी हर नदी है
अरे नहीं !! वो सामने तो
मिठास बह रही है  ..

ये किसका अक्स है पानी में
ये में तो नहीं हूँ
ये लाल छींटे मुख पे मेरे भी
हाथ जख्मी , जलते हैं..

में तो बच कर रहा कितना
खुनी हुआ फिर मेरा क्यों दामन
क्या सच का अर्थ बदल गया
भूल गया में भी क्या.. सच??

ऐ रंगरेज.. तू ही बता
कैसे करूँ साफ़ ये दामन
बदरंग चेहरे पे फिर
ला सकूँ इन्द्रधनुष ??

~~06/05/2013~~

1 comment:

  1. nice thought..I wish u wrote that better version that was in your mind..:)

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