बंद दरवाज़ों पर
लटकते ये ताले
क्या कभी कर पाए हैं
बंद ‘दरवाज़े’ ?
इन लटकते तालों से
तो सिर्फ
बंद हुए दिल के
दरवाज़े हैं
आज की इस चमकती
दुनियां में
कहो ना.. कहाँ रह गई
है
कीमत - दिल की..
प्यार की..
रिश्तों की ...
जो चमके, कीमती वही कहलाये
क्या सच है ये??
ये चार दिन की
चांदनी
‘अक्स’ को हमारे कहाँ चमका
पायेगी
दिमाग पर लटकते
तालों को
कहाँ खोल पायेंगे
काश अंधे न हुए होते
इस चमक से
समझ गए होते रिश्ते ‘अपनेपन’ के....
~०७/०८/२०१२~
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