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Friday, 12 July 2013

नयी उम्मीद


जख्मी हुए थे कई ह्रदय
भर गए अब घाव सारे
क्यों रिसता है खून
बहती है मवाद की धारा ?
रिश्तों की मरहम से
पट गए सबके मन
आंसू सिर्फ एक जीवन में
आज भी वो हृदय
चीखता है बिलखता है
कहाँ फर्क पड़ता है जहाँ में?

हे सूरज! ये कैसा न्याय है
सबको मिलती रौशनी एक सी
फिर भी क्यों दिखता अँधेरा सा

उठो ना .. पोंछ लो आँसू
महसूस कर के तो देखो
सूर्य अन्यायी नहीं
काला चश्मा पहना हमने ही
हटा पाएंगे जिस दिन ये पर्दा
खिलखिलाती धुप से नहा ही लेंगे !


~१२/०७/२०१३~